कहीं कैसी, कहीं कैसी
ना दूब के जैसे धीमे से
ये बांस सरीखी बढ़ती है
जब चांद चढ़े रुक जाती है
जब सूर्य दिखे चल पड़ती है
किसी के हिस्से बरखा हर पल
तो कहीं बूंद एक ना पड़ती है
रोज़ किताब के पन्ने-सी
कोई नयी कहानी गढ़ती है
किसी की खुद में मस्त मगन
कोई दोष किसी पे मढ़ती है
किसी की गुज़रे हँसी-ख़ुशी
किसी की बहुत अकड़ती है
किसी की मिलती किसी के संग
किसी से कोई बिछड़ती है
भला किसके लिए रुकी है कभी?
ज़िन्दगी वक़्त है, लगातार बढ़ती है
कहीं रोज़ बाग कई खिलते हैं
कहीं पर्ण सरीखी झड़ती है
किसी के बहुत से साथी हैं
पर स्वयं से नित्य बिगड़ती है
Amazing Sahil
ReplyDeleteThank you
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ReplyDeleteशानदार,अति-उत्तम कविता
ReplyDeleteधन्यवाद
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